ये हुक्म है तिरी राहों में दूसरा न मिले
शमीम-ए-जाँ तुझे पैराहन-ए-सबा न मिले
बुझी हुई हैं निगाहें ग़ुबार है कि धुआँ
वो रास्ता है कि अपना भी नक़्श-ए-पा न मिले
जमाल-ए-शब मिरे ख़्वाबों की रौशनी तक है
ख़ुदा-न-कर्दा चराग़ों की लौ बढ़ा न मिले
क़दम क़दम मिरी वीरानियों के रंग-महल
दिलों को ज़ख़्म की सौग़ात-ए-ख़ुसरवाना मिले
तुम इस दयार में इंसाँ को ढूँढती हो जहाँ
वफ़ा मिले तो ब-एहसास-ए-मुजरिमाना मिले
गए दिनों के हवाले से तुम को पहचाना
हम आज ख़ुद से मिले और वालिहाना मिले
किधर से संग चला था 'अदा' कहाँ पहुँचा
जो एक ठेस से टूटें उन्हें बहा न मिले
ग़ज़ल
ये हुक्म है तिरी राहों में दूसरा न मिले
अदा जाफ़री