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ये दिल-ए-नादाँ हमारा भी अजब दीवाना था | शाही शायरी
ye dil-e-nadan hamara bhi ajab diwana tha

ग़ज़ल

ये दिल-ए-नादाँ हमारा भी अजब दीवाना था

नज़ीर अकबराबादी

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ये दिल-ए-नादाँ हमारा भी अजब दीवाना था
उस को अपना घर ये समझा था जो मेहमाँ-ख़ाना था

थे जो बेगाने यगाने उन को गिनता था ब-जाँ
इस क़दर ग़फ़लत में अक़्ल-ओ-होश से बेगाना था

ले लिया मअनी को और सूरत को जाना बे-सबात
ग़ौर से देखा तो आलम में वही फ़रज़ाना था

क्या ग़म-ए-अस्बाब ज़ाहिर का न हो जिस को क़याम
चश्म-ए-मअ'नी-बीं में यकसाँ है अगर था या न था

कहते हैं अहद-ए-सलफ़ में था कोई ऐसा मकाँ
क़ितआ-ए-ख़ुल्द उस का एक इक कुंज और काशाना था

पुर-सफ़ा ओ पुर-ज़िया ओ पुर-निगार ओ पुर-बहार
ज़ेब से सौ सौ तरह उस में जो शाख़ और शाना था

लहज़ा लहज़ा ऐश-ओ-इशरत दम-ब-दम रक़्स-ओ-सुरूर
गिर्या-ए-मीना ओ यकसर ख़ंदा-ए-पैमाना था

मालिक उस का जब वो पुश्त-ए-बाम पर फिरता था शाद
क्या कहूँ क्या क्या उसे नाज़-ए-सर-अफ़राज़ाना था

था जहाँ ये कुछ अयाँ वाँ इंक़लाब-ए-दौर से
यक मिज़ा बरहम ज़दन में कुछ न था वीराना था

वाँ तिनीस-ए-यक-मगस आए न हरगिज़ गोश में
जिस जगह शोर-ए-क़यामत साज़-ए-नौबत-ख़ाना था

वाँ नज़र आया न हरगिज़ पारा-ए-संग-ए-सियाह
जिस जगह लाल-ओ-गुहर से पुर जवाहिर-ख़ाना था

ख़ूब जो देखा 'नज़ीर' इन रफ़्तगाँ का माजरा
बहर-ए-ख़ौफ़-ओ-इबरत-ए-आइंदगाँ अफ़्साना था