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ये दौर-ए-अहल-ए-हवस है करम से काम न ले | शाही शायरी
ye daur-e-ahl-e-hawas hai karam se kaam na le

ग़ज़ल

ये दौर-ए-अहल-ए-हवस है करम से काम न ले

शमीम जयपुरी

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ये दौर-ए-अहल-ए-हवस है करम से काम न ले
जफ़ा से काम ले ज़ालिम वफ़ा का नाम न ले

गिला सितम का नहीं मुझ को सिर्फ़ ख़ौफ़ ये है
ज़माना तुझ से कहीं मेरा इंतिक़ाम न ले

ज़माना उस को मिरी याद ख़ुद दिला देगा
वो लाख मुझ को भुला दे वो मेरा नाम न ले

मज़ा तो जब है कि ऐ सब्र-ओ-ज़ब्त-ए-इश्क़ इक दिन
वो ख़ुद सलाम करे जो मिरा सलाम न ले

न कर ज़रा भी तवज्जोह ख़ता-ए-दुश्मन पर
इक इंतिक़ाम है ये भी कि इंतिक़ाम न ले

दिल-ए-तबाह जो होना था वो तो हो ही गया
ज़माना कुछ भी कहे तू तो उन का नाम न ले

वो क्या निगाह जो मरहून-ए-जाम ही रक्खे
वो हाथ क्या है जो गिरते हुओं को थाम न ले

तिरी निगाह से पी ले जो एक बार ऐ दोस्त
तमाम उम्र वो फिर मय-कशी का नाम न ले

उसी के दर पे झुकाए रहेंगे सर को 'शमीम'
ये देखना है वो कब तक करम से काम न ले