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ये दास्तान-ए-दिल है क्या हो अदा ज़बाँ से | शाही शायरी
ye dastan-e-dil hai kya ho ada zaban se

ग़ज़ल

ये दास्तान-ए-दिल है क्या हो अदा ज़बाँ से

आरज़ू लखनवी

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ये दास्तान-ए-दिल है क्या हो अदा ज़बाँ से
आँसू टपक रहे हैं लफ़्ज़ें मिलें कहाँ से

है रब्त दो दिलों को बे-रब्ती-ए-बयाँ से
कुछ वो कहें नज़र से कुछ हम कहें ज़बाँ से

ये रोते रोते हँसना तरतीब-ए-ज़िक्र-ए-ग़म है
आया हूँ इब्तिदा पर छेड़ा था दरमियाँ से

हासिल तो ज़िंदगी का थी ज़िंदगी यहीं की
अब मैं हूँ इक जनाज़ा उठवा दो आस्ताँ से

इस तूल-ए-ख़ामुशी का ज़ोर-ए-बयाँ भी देखा
थी बात मेरे दिल की निकली तिरी ज़बाँ से

जब हुस्न ख़ुद-नुमा है और इश्क़ रख़्ना-अफ़्गन
इस कश्मकश में पर्दा निकलेगा दरमियाँ से

मैदान-ए-इम्तिहान में ऐ बे-ग़रज़ मोहब्बत
दिल की ज़मीन तू ने टकरा दी आसमाँ से

उस राज़दार-ए-ग़म की हालत न पूछ जिस को
कहना तो है बहुत कुछ महरूम है ज़बाँ से

ऐ जज़्ब-ए-शौक़-ए-मंज़िल मम्नून-ए-ग़ैर क्यूँ हों
ख़ुद रास्ता बदल कर बिछड़ा हूँ कारवाँ से

हर गाम पर ठिठकना हर बार मुड़ के तकना
ओ मुस्कुराने वाले क्या ले चला यहाँ से

ज़ाहिर फ़रेब-ए-वअ'दा फिर ए'तिबार इतना
वो लिख गया दिलों पर जो कह दिया ज़बाँ से

आँखों से बाग़बाँ की शोले निकले रहे हैं
तिनके दबाए मुँह में निकला हूँ आशियाँ से

दिल का सकूँ गँवा कर हों आरज़ू पशेमाँ
कुछ ले के रख न छोड़ा क्यूँ जिंस-ए-राएगाँ से