ये दाना-ए-हवस तुम्हें हराम क्यूँ नहीं रहा
उड़ान का वो शौक़ ज़ेर-ए-दाम क्यूँ नहीं रहा
मसाफ़तों का फिर वो एहतिमाम क्यूँ नहीं रहा
सफ़र दरून-ए-ज़ात बे-क़याम क्यूँ नहीं रहा
बिखर गई है शब तो तीरगी का राज क्यूँ नहीं
जो बाम पर था वो मह-ए-तमाम क्यूँ नहीं रहा
हमारे क़त्ल पर उसूल-ए-क़त्ल-गह का कुछ लिहाज़
सलीब-ओ-दार का भी एहतिमाम क्यूँ नहीं रहा
भला ये कैसे मान लें कि दिल को साफ़ कर लिया
जो सुल्ह हो गई तो फिर कलाम क्यूँ नहीं रहा
जो शो'बदे थे तेरे पीर-ए-वक़्त उन का क्या हुआ
अता-ए-हुस्न-ओ-इश्क़ पर दवाम क्यूँ नहीं रहा
जो पैरव-ए-हवा-ए-नफ़्स-ओ-बंदा-ए-हवस हुआ
उसे ये ग़म वो वक़्त का इमाम क्यूँ नहीं रहा
दिलों को जीतने की जो करामातें थीं क्या हुईं
नज़र नज़र जो फ़ैज़ था वो आम क्यूँ नहीं रहा

ग़ज़ल
ये दाना-ए-हवस तुम्हें हराम क्यूँ नहीं रहा
इरफ़ान वहीद