ये बर्फ़-ज़ार बदन से न जाँ से निकलेगा
लहू हो सर्द तो शो'ला कहाँ से निकलेगा
हज़ार घेरे रहे जब्र का हिसार-ए-सियह
कि बाब-ए-राह-ए-अमाँ दरमियाँ से निकलेगा
जो तल्ख़ हर्फ़ पस-ए-लब है आम भी होगा
चढ़ा है तीर तो आख़िर कमाँ से निकलेगा
जो पेड़ फल नहीं देते वो काटते जाओ
ख़िज़ाँ का ज़हर यूँही गुलिस्ताँ से निकलेगा
ज़रा चले तो सही पानियों पे तेज़ हवा
खड़ा सफ़ीना खुले बादबाँ से निकलेगा
कोई तो काम लो ग़म से रगें ही चमकाओ
जलेंगी शमएँ अँधेरा मकाँ से निकलेगा
खुले हैं रास्तों के भेद तू समझ 'शाहीं'
ये कारवाँ सफ़र-ए-राएगाँ से निकलेगा
ग़ज़ल
ये बर्फ़-ज़ार बदन से न जाँ से निकलेगा
जावेद शाहीन