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ये बंदगी का सदा अब समाँ रहे न रहे | शाही शायरी
ye bandagi ka sada ab saman rahe na rahe

ग़ज़ल

ये बंदगी का सदा अब समाँ रहे न रहे

अबु मोहम्मद वासिल

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ये बंदगी का सदा अब समाँ रहे न रहे
सर-ए-नियाज़ झुके आस्ताँ रहे न रहे

तिरे ख़याल में मैं हूँ मिरे ख़याल में तू
मिरे बग़ैर तिरी दास्ताँ रहे न रहे

किसे ख़बर है कि हर ग़म में है ख़ुशी पिन्हाँ
ग़म-ए-हबीब सलामत ये जाँ रहे न रहे

निगह ख़मोश तकल्लुम की राज़दाँ होगी
हुज़ूर-ए-दोस्त ये गोया ज़बाँ रहे न रहे

हमारी लाश गुलिस्ताँ में दफ़्न कर सय्याद
चमन से दूर कोई नौहा-ख़्वाँ रहे न रहे

वो मुझ से इस लिए कहते हैं अपने राज़ की बात
कि मेरे बा'द कोई राज़दाँ रहे न रहे

सदा उन्हों ने अनल-हक़ की इस लिए दी थी
सदा दहन में तुम्हारी ज़बाँ रहे न रहे

मैं आज इस लिए करता हूँ एहतिराम अपना
हमेशा ख़ुद पे तुम्हारा गुमाँ रहे न रहे

उसी के इश्क़ में मिट कर के हो गए 'वासिल'
सबात उसी को है अपना निशाँ रहे न रहे