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ये बात दश्त-ए-वफ़ा की नहीं चमन की है | शाही शायरी
ye baat dasht-e-wafa ki nahin chaman ki hai

ग़ज़ल

ये बात दश्त-ए-वफ़ा की नहीं चमन की है

तनवीर अहमद अल्वी

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ये बात दश्त-ए-वफ़ा की नहीं चमन की है
चमन की बात भी ज़ख़्मों के पैरहन की है

हवा-ए-शहर बहुत अजनबी सही लेकिन
ये उस में बू-ए-वफ़ा तेरी अंजुमन की है

मैं बुत-तराश हूँ पत्थर से काम है मुझ को
मगर ये तर्ज़-ए-अदा तेरे बाँकपन की है

लपक तो शो'ला की फ़ितरत है फिर भी क्या कीजे
कि इस में फूल सी रंगत तेरे बदन की है

ये मेरी वादी-ए-जाँ नाग-फन का जंगल है
ये ख़ुशबुओं की रिदा शाख़-ए-यासमन की है

मेरे जुनूँ की सज़ा संगसार होना है
लहू लहू ये क़बा क्यूँ निगार-ए-फ़न की है

ये दिल तो शो'ला-ए-अफ़्सुर्दा है मगर 'तनवीर'
मिरी रगों में तपिश गर्मी-ए-सुख़न की है