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ये और बात कि ये सेहर बेश-ओ-कम पे चला | शाही शायरी
ye aur baat ki ye sehr besh-o-kam pe chala

ग़ज़ल

ये और बात कि ये सेहर बेश-ओ-कम पे चला

जाफ़र ताहिर

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ये और बात कि ये सेहर बेश-ओ-कम पे चला
सियाह-रात का जादू मगर न हम पे चला

उधर से पहले भी कुछ सरफ़रोश गुज़ारे थे
रह-ए-तलब में निशान-ए-क़दम क़दम पे चला

ये ताइरान-ए-चमन का नसीब क्या कहिए
वो तीर उन के लिए वक़्फ़ है जो कम पे चला

ख़ुदा ख़ुदा के इशारे पे लौट लौट गया
तड़प तड़प के तरीक़-ए-सनम सनम पे चला

कभी ख़ुदा की परस्तिश कभी सना-ए-बुताँ
रह-ए-अरब पे कभी जादा-ए-अजम पे चला

असीर-ए-दाम न होगा मिरा दिल-ए-आज़ाद
किसी का हुक्म कभी मौज-ए-यम-ब-यम पे चला

तुझे भी देख लिया हम ने ओ ख़ुदा-ए-अजल
कि तेरा ज़ोर चला भी तो अहल-ए-ग़म पे चला

ये नक़्श-ए-पा हैं कि ज़ंजीर-ए-मौज-ए-ख़ूँ यारो
ये कौन तुरफ़ा-जवाँ जादा-ए-सितम पे चला

लब-ओ-निगाह पे मोहरें लगी रहीं 'ताहिर'
किसी का ज़ोर न लेकिन मिरे क़लम पे चला