ये अजब साअत-ए-रुख़्सत है कि डर लगता है
शहर का शहर मुझे रख़्त-ए-सफ़र लगता है
रात को घर से निकलते हुए डर लगता है
चाँद दीवार पे रक्खा हुआ सर लगता है
हम को दिल ने नहीं हालात ने नज़दीक किया
धूप में दूर से हर शख़्स शजर लगता है
जिस पे चलते हुए सोचा था कि लौट आऊँगा
अब वो रस्ता भी मुझे शहर-बदर लगता है
मुझ से तो दिल भी मोहब्बत में नहीं ख़र्च हुआ
तुम तो कहते थे कि इस काम में घर लगता है
वक़्त लफ़्ज़ों से बनाई हुई चादर जैसा
ओढ़ लेता हूँ तो सब ख़्वाब हुनर लगता है
इस ज़माने में तो इतना भी ग़नीमत है मियाँ
कोई बाहर से भी दरवेश अगर लगता है
अपने शजरे कि वो तस्दीक़ कराए जा कर
जिस को ज़ंजीर पहनते हुए डर लगता है
एक मुद्दत से मिरी माँ नहीं सोई 'ताबिश'
मैं ने इक बार कहा था मुझे डर लगता है
ग़ज़ल
ये अजब साअत-ए-रुख़्सत है कि डर लगता है
अब्बास ताबिश