ये आग मोहब्बत की बुझाए न बुझे है
बुझ जाए जो इक बार जलाए न जले है
टूटा जो भरम रिश्तों में एहसास-ओ-वफ़ा का
सौ तरह निभाओ तो निभाए न निभे है
ख़्वाबों का महल यूँ ही बनाया न करो तुम
ता'मीर जो हो जाए गिराए न गिरे है
दहलीज़ पे दिल की जो क़दम रक्खे है कोई
टिक जाए है ऐसे के हिलाए न हिले है
है बाग़-ए-मोहब्बत में वफ़ा का जो हसीं गुल
मुरझा जो गया फिर तो खिलाए न खिले है
दिल चीज़ है ऐसी कि उजड़ जाए जो एक बार
फिर लाख बसाअो तो बसाए न बसे है
क्यूँ नक़्श लिए चश्म-ए-तसव्वुर में फिरो हो
हो जाए ये गहरा तो मिटाए न मिटे है
कोशिश तो बहुत की है कि धुल जाए हर इक अक्स
इक शक्ल है ऐसी कि बहाए न बहे है
देख आई हैं शायद कहीं महबूब को अपने
आँखों की चमक आज छुपाए न छुपे है
बातों मन जो कर जाए है इक़रार-ए-मोहब्बत
फिर बात कोई उस से बनाए न बने है
हर-गाम क़दम अपना सँभाले रखो 'असरा'
दामन पे लगा दाग़ छुड़ाए न छुटे है
ग़ज़ल
ये आग मोहब्बत की बुझाए न बुझे है
असरा रिज़वी