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ये आग मोहब्बत की बुझाए न बुझे है | शाही शायरी
ye aag mohabbat ki bujhae na bujhe hai

ग़ज़ल

ये आग मोहब्बत की बुझाए न बुझे है

असरा रिज़वी

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ये आग मोहब्बत की बुझाए न बुझे है
बुझ जाए जो इक बार जलाए न जले है

टूटा जो भरम रिश्तों में एहसास-ओ-वफ़ा का
सौ तरह निभाओ तो निभाए न निभे है

ख़्वाबों का महल यूँ ही बनाया न करो तुम
ता'मीर जो हो जाए गिराए न गिरे है

दहलीज़ पे दिल की जो क़दम रक्खे है कोई
टिक जाए है ऐसे के हिलाए न हिले है

है बाग़-ए-मोहब्बत में वफ़ा का जो हसीं गुल
मुरझा जो गया फिर तो खिलाए न खिले है

दिल चीज़ है ऐसी कि उजड़ जाए जो एक बार
फिर लाख बसाअो तो बसाए न बसे है

क्यूँ नक़्श लिए चश्म-ए-तसव्वुर में फिरो हो
हो जाए ये गहरा तो मिटाए न मिटे है

कोशिश तो बहुत की है कि धुल जाए हर इक अक्स
इक शक्ल है ऐसी कि बहाए न बहे है

देख आई हैं शायद कहीं महबूब को अपने
आँखों की चमक आज छुपाए न छुपे है

बातों मन जो कर जाए है इक़रार-ए-मोहब्बत
फिर बात कोई उस से बनाए न बने है

हर-गाम क़दम अपना सँभाले रखो 'असरा'
दामन पे लगा दाग़ छुड़ाए न छुटे है