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यक नाला-ए-आशिक़ाना है याँ | शाही शायरी
yak nala-e-asihqana hai yan

ग़ज़ल

यक नाला-ए-आशिक़ाना है याँ

मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी

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यक नाला-ए-आशिक़ाना है याँ
यक ज़ख़्मा ब-सद तराना है याँ

मज़कूर रहे है दर्द-ओ-ग़म का
दिन रात यही फ़साना है याँ

फेंके है वो तीर-ए-ग़म्ज़ा मुझ पर
समझे है कि दिल निशाना है याँ

गर अपनी बदी के सर को काटे
बेगाना भी पुर-यगाना है याँ

यक जुम्बिश-ए-शौक़ दिल को बस है
क्या हाजत-ए-ताज़ियाना है याँ

जो आए है झुक के जाए है वो
गोया कि शराब-ख़ाना है याँ

वीरान हुए चमन से निकले
हम समझते थे आशियाना है याँ

आँखें जो भरी ही आतियाँ हैं
पानी का मगर ख़ज़ाना है याँ

दीवाँ की मिरे तू सैर तो कर
ऐ 'मुसहफ़ी' इक ज़माना है याँ

बुलबुल है चमन है सर्व-ओ-गुल है
साक़ी है मय-ए-मुग़ाना है याँ