यक दो जाम और भी दे तू साक़ी
न रहे दिल में आरज़ू साक़ी
मेरी तस्कीं न होगी साग़र से
मुँह से मेरे लगा सुबू साक़ी
रात ओ दिन मय-कशों को रहती है
तेरी ही याद ओ जुस्तुजू साक़ी
रिंद-ए-मुफ़्लिस को दे है ज़्याद शराब
भाई मुझ को तिरी ये ख़ू साक़ी
आह तुझ बिन हैं ज़ार-ओ-नालाँ हम
भूली मस्ती की हाव-हू साक़ी
शीशा-ए-मय की तरह से हम आज
रखते हैं गिर्या दर-गुलू साक़ी
किसी के आगे मिस्ल-ए-साग़र हम
लाते हैं दस्त-ए-आरज़ू साक़ी
लाते हैं मिस्ल-ए-शीशा-ए-बादा
तेरे ही आगे सरफ़रू साक़ी
रो नहीं उस को बज़्म-ए-मस्ताँ में
जिस के तईं तू न देवे रू साक़ी
दे 'जहाँदार' को वो मय जिस का
होवे गुल का सा रंग-ओ-बू साक़ी
ग़ज़ल
यक दो जाम और भी दे तू साक़ी
मिर्ज़ा जवाँ बख़्त जहाँदार