यक-ब-यक ये हो गए अंदाज़ क्या
फिर सुनी दिल ने वही आवाज़ क्या
सो गया हँस कर फ़ना की गोद में
और करता भी कोई जाँ-बाज़ क्या
दर्द-ए-हस्ती फिर चमक उट्ठा है आज
हो गई ग़ाफ़िल वो चश्म-ए-नाज़ क्या
दैर ओ काबा ही पे क्या मौक़ूफ़ है
दिल नहीं है जल्वा-गाह-ए-नाज़ क्या
काकुलें लहरा रही हैं दम-ब-दम
बज रहा है तीरगी का साज़ क्या
क़हक़हे अश्क ओ तबस्सुम और फ़ुग़ाँ
ज़िंदगी क्या ज़िंदगी का राज़ क्या
उन निगाहों में है फिर मेहर-ओ-वफ़ा
रुक सकेगी वक़्त की पर्वाज़ क्या
है फ़क़त बेदारी-ए-एहसास 'नक़्श'
दास्तान-ए-शौक़ का आग़ाज़ क्या
ग़ज़ल
यक-ब-यक ये हो गए अंदाज़ क्या
महेश चंद्र नक़्श

