यक-ब-यक शोरिश-ए-फ़ुग़ाँ की तरह
फ़स्ल-ए-गुल आई इम्तिहाँ की तरह
सेहन-ए-गुलशन में बहर-ए-मुश्ताक़ाँ
हर रविश खिंच गई कमाँ की तरह
फिर लहू से हर एक कासा-ए-दाग़
पुर हुआ जाम-ए-अर्ग़वाँ की तरह
याद आया जुनून-ए-गुम-गश्ता
बे-तलब क़र्ज़-ए-दोस्ताँ की तरह
जाने किस पर हो मेहरबाँ क़ातिल
बे-सबब मर्ग-ए-ना-गहाँ की तरह
हर सदा पर लगे हैं कान यहाँ
दिल सँभाले रहो ज़बाँ की तरह
ग़ज़ल
यक-ब-यक शोरिश-ए-फ़ुग़ाँ की तरह
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़