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यक-ब-यक होगी सियाही इस क़दर जाती रही | शाही शायरी
yak-ba-yak hogi siyahi is qadar jati rahi

ग़ज़ल

यक-ब-यक होगी सियाही इस क़दर जाती रही

नज़ीर अकबराबादी

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यक-ब-यक होगी सियाही इस क़दर जाती रही
क्या कहें गोया सियाही यक सर-ए-मू भी न थी

गो सफ़ेदी मू की यूँ रौशन है जूँ आब-ए-हयात
लेकिन अपनी तो इसी ज़ुल्मात से थी ज़िंदगी

दम-ब-दम बज़्म-ए-सुरूर ओ हर घड़ी सैर-ए-चमन
इशरत-ओ-ऐश-ओ-नशात ओ ख़ुर्मी ओ ताज़गी

ख़ंदा-ए-शादी से हरगिज़ लब न होते थे बहम
साग़र ओ मीना सुरूद ओ रक़्स ओ ख़ुश-तब्ई हँसी

जाम देता था उधर साक़ी ब-मिन्नत हाथ जोड़
इस तरफ़ क्या क्या लगावट दिलबरों की थी नई

गुल-बदन करते थे किस किस तौर इज़हार-ए-इश्तियाक़
ग़ुंचा-लब मिलते थे सौ सौ दिल में रख कर बे-कली

कोई देता था मोहब्बत से गले में हाथ डाल
कोई देता था ज़बरदस्ती से बोसा हर घड़ी

कोई देता था मोहब्बत से गले में हाथ डाल
कोई देता था ज़बरदस्ती से बोसा हर घड़ी

जिस तरफ़ थे देखते ऐश-ओ-तरब का जोश था
मस्ती ओ रिंदी हवस-बाज़ी ओ बे-अंदेशगी

आन कर मू की सफ़ेदी ने ये कीं बर्बादियाँ
खोल दीं जितनी बंधीं थीं वो हवाएँ ऐश की

क़द में ख़म आँखों में नम चेहरे पे झुर्री रंग ज़र्द
सर से पा तक सख़्त ना-ख़ुश मंज़री बद-हैअती

क्या तमाशे इंक़लाब-ए-चर्ख़ के कहिए 'नज़ीर'
दम में वो रौनक़ थी और एक दम में ये बे-रौनक़ी