यही चिनार यही झील का किनारा था
यहीं किसी ने मिरे साथ दिन गुज़ारा था
नज़र में नक़्श है सुब्ह-ए-सफ़र की वीरानी
बस एक मैं था और इक सुब्ह का सितारा था
मिरे ख़िलाफ़ गवाही में पेश पेश रहा
वो शख़्स जिस ने मुझे जुर्म पर उभारा था
ख़िराज देता चला आ रहा हूँ आज तलक
मैं एक रोज़ ज़माने से जंग हारा था
मुझे ख़ुद अपनी नहीं उस की फ़िक्र लाहक़ है
बिछड़ने वाला भी मुझ सा ही बे-सहारा था
ज़मीं के काम अगर मेरी दस्तरस में नहीं
तो फिर ज़मीं पे मुझे किस लिए उतारा था
मैं जल के राख हुआ जिस अलाव में 'आमिर'
वो इब्तिदा में सुलगता हुआ शरारा था
ग़ज़ल
यही चिनार यही झील का किनारा था
मक़बूल आमिर