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यार जब पेश-ए-नज़र होता है | शाही शायरी
yar jab pesh-e-nazar hota hai

ग़ज़ल

यार जब पेश-ए-नज़र होता है

सिराज औरंगाबादी

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यार जब पेश-ए-नज़र होता है
दिल मिरा ज़ेर-ओ-ज़बर होता है

हो ख़जिल बाग़ में गुल आब हुआ
जब सीं गुल-रू का गुज़र होता है

दाग़-ए-दिल कूँ मिरे नहीं बहरा-ए-वस्ल
गरचे हर गुल कूँ समर होता है

गर्द-ए-ग़म दिलबर-ए-ख़ुश-चश्म बग़ैर
सुर्मा-ए-चशम-ए-जिगर होता है

दिल लिया नर्गिस-ए-साहिर ने तिरी
सच कि जादू कूँ असर होता है

तेग़-ए-अबरू सीं तिरी ख़ौफ़ नहीं
दिल मिरा जा-ए-सिपर होता है

शम्अ-रू की शब-ए-हिज्राँ में 'सिराज'
आग ग़म दाग़ शरर होता है