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यार हैं चीं-बर-जबीं सब मेहरबाँ कोई नहीं | शाही शायरी
yar hain chin-bar-jabin sab mehrban koi nahin

ग़ज़ल

यार हैं चीं-बर-जबीं सब मेहरबाँ कोई नहीं

मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी

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यार हैं चीं-बर-जबीं सब मेहरबाँ कोई नहीं
हम से हँस कर बोलने वाला यहाँ कोई नहीं

क़िस्मत इक शब ले गई मुझ को जो बाग़-ए-वस्ल में
देखता क्या हूँ कि उस का बाग़बाँ कोई नहीं

बर्क़-ए-गुलशन में पड़ी किस के तबस्सुम से सबा
जो न झुलसा होवे ऐसा आशियाँ कोई नहीं

वाए नाकामी कि फ़रियादी हैं हम उस शहर में
जुज़-ख़मोशी दाद-रस अपना जहाँ कोई नहीं

सुब्ह होते ख़्वाब-ए-ग़फ़लत से जो चौंके हम तो हाए
आँख के खुलते ही देखा कारवाँ कोई नहीं

ऐ दिल-ए-बे-जुरअत इतनी भी न कर बे-जुरअती
जुज़ सबा उस गुल का इस दम पासबाँ कोई नहीं

दो घड़ी मिल बैठें हम तुम एक दम जो चैन से
हाए ज़ेर-ए-आसमाँ ऐसा मकाँ कोई नहीं

मैं जो पूछूँ हूँ तिरे घर में भी आता है कोई
यूँ कहे है फेर कर मुँह में ज़बाँ कोई नहीं

मुँह उठाए जाते हैं यूँ दश्त-ए-ग़ुर्बत में चले
ना-बलद हैं सब ही हम में राह-दाँ कोई नहीं

''ठहरियो टुक ठहरियो'' की आए है आवाज़ सी
देखियो पीछे तो आज ऐ हमरहाँ कोई नहीं

ख़्वाब-गह से क्या उड़ा कर ले गई उस को सबा
और सब ज़ेवर है उस का इत्र-दाँ कोई नहीं

'मुसहफ़ी' क्या ख़ाक हम शेर-ओ-सुख़न पर जी लगाएँ
शायरी ये कुछ है लेकिन क़द्र-दाँ कोई नहीं