याँ ख़ाक का बिस्तर है गले में कफ़नी है
वाँ हाथ में आईना है गुल पैरहनी है
हाथों से हमें इश्क़ के दिन रात नहीं चैन
फ़रियाद ओ फ़ुग़ाँ दिन को है शब नारा-ज़नी है
हुश्यार हो ग़फ़लत से तू ग़ाफ़िल न हो ऐ दिल
अपनी तो नज़र में ये जगह बे-वतनी है
कुछ कह नहीं सकता हूँ ज़बाँ से कि ज़रा देख
क्या जाए है जिस जाए न कुछ दम-ज़दनी है
मिज़्गाँ पे मिरे लख़्त-ए-जिगर ही नहीं यारो
इस तार से वो रिश्ता अक़ीक़-ए-यमनी है
लिख और ग़ज़ल क़ाफ़िए को फेर 'ज़फ़र' तू
अब तब्अ की दरिया की तिरी मौज-ज़नी है
ग़ज़ल
याँ ख़ाक का बिस्तर है गले में कफ़नी है
बहादुर शाह ज़फ़र