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यादों की गूँज ज़ेहन से बाहर निकालिए | शाही शायरी
yaadon ki gunj zehn se bahar nikaliye

ग़ज़ल

यादों की गूँज ज़ेहन से बाहर निकालिए

सैफ़ ज़ुल्फ़ी

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यादों की गूँज ज़ेहन से बाहर निकालिए
गुम्बद न चीख़ उठ्ठे कोई दर निकालिए

खुल जाइए बरसते हुए अब्र की तरह
जो चीज़ दिल में है उसे बाहर निकालिए

बन कर दिखाइए किसी बहज़ाद का जवाब
पत्थर तराश कर कोई पैकर निकालिए

रखिए शनावरी का भरम कुछ न कुछ ज़रूर
मोती न हाथ आए तो पत्थर निकालिए

मंज़ूर है ग़ुरूर-ए-ख़िज़ाँ की अगर शिकस्त
गुलशन से रंग-ओ-नूर के लश्कर निकालिए

क़ादिर है बहर-ओ-बर पे जो इंसाँ तो आप भी
ख़त खींच कर ज़मीं से समुंदर निकालिए

रखिए ब-अज़्म-ए-ख़ास रह-ए-ज़ीस्त में क़दम
मंज़िल बड़ी कठिन है मगर डर निकालिए

दुश्मन भी तीर जोड़ के बैठा है घात में
ख़ंदक़ से देख-भाल के अब सर निकालिए

फिर दोस्त को लगाइए दिल से ब-सद-ख़ुलूस
फिर अपनी आस्तीन से ख़ंजर निकालिए

फिर छा रही है दजला-ए-महताब पर घटा
इस तीरगी से फिर कोई मंज़र निकालिए

जो हो सके तो वक़्त की ज़ंजीर तोड़ कर
शाम-ओ-सहर का पाँव से चक्कर निकालिए

'ज़ुल्फ़ी' गली में आज बहुत तेज़ है हवा
इस काग़ज़ी-बदन को न बाहर निकालिए