याद करने का तुम्हें कोई इरादा भी न था 
और तुम्हें दिल से भुला दें ये गवारा भी न था 
हर तरफ़ तपती हुई धूप थी ऐ उम्र-ए-रवाँ 
दूर तक दश्त-ए-अलम में कोई साया भी न था 
मिशअल-ए-जाँ भी जलाई न गई थी हम से 
और पलकों पे शब-ए-ग़म कोई तारा भी न था 
हम सर-ए-राह-ए-वफ़ा उस को सदा क्या देते 
जाने वाले ने पलट कर हमें देखा भी न था 
हो गई ख़त्म सराबों में भटकती हुई ज़ीस्त 
दिल में हसरत ही रही दश्त में दरिया भी न था 
किस ख़मोशी से जला दामन-ए-दिल ऐ 'गुलनार' 
कोई शोला भी न था कोई शरारा भी न था
        ग़ज़ल
याद करने का तुम्हें कोई इरादा भी न था
गुलनार आफ़रीन

