याद आओ मुझे लिल्लाह न तुम याद करो
अपनी और मेरी जवानी को न बर्बाद करो
शर्म रोने भी न दे बेकली सोने भी न दे
इस तरह तो मिरी रातों को न बर्बाद करो
हद है पीने की कि ख़ुद पीर-ए-मुग़ाँ कहता है
इस बुरी तरह जवानी को न बर्बाद करो
याद आते हो बहुत दिल से भुलाने वालो
तुम हमें याद करो तुम हमें क्यूँ याद करो
आसमाँ रुत्बा महल अपने बनाने वालो
दिल का उजड़ा हुआ घर भी कोई आबाद करो
हम कभी आएँ तिरे घर मगर आएँगे ज़रूर
तुम ने ये वा'दा किया था कि नहीं याद करो
चाँदनी रात में गुल-गश्त को जब जाते थे
आह अज़रा कभी उस वक़्त को भी याद करो
मैं भी शाइस्ता-ए-अल्ताफ़-ए-सितम हूँ शायद
मेरे होते हुए क्यूँ ग़ैर पे बेदाद करो
सदक़े उस शोख़ के 'अख़्तर' ये लिखा है जिस ने
इश्क़ में अपनी जवानी को न बर्बाद करो
ग़ज़ल
याद आओ मुझे लिल्लाह न तुम याद करो
अख़्तर शीरानी