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याद आ के तिरी हिज्र में समझाएगी किस को | शाही शायरी
yaad aa ke teri hijr mein samjhaegi kis ko

ग़ज़ल

याद आ के तिरी हिज्र में समझाएगी किस को

जलाल लखनवी

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याद आ के तिरी हिज्र में समझाएगी किस को
दिल ही नहीं सीने में तो बहलाएगी किस को

दम खिंचता है क्यूँ आज ये रग रग से हमारा
क्या जाने इधर दिल की कशिश लाएगी किस को

उठने ही नहीं देती है जब यास बिठा कर
फिर शौक़ की हिम्मत कहीं ले जाएगी किस को

जब मार ही डाला हमें बे-ताबी-ए-दिल ने
करवट शब-ए-फ़ुर्क़त में बदलवाएगी किस को

मर जाएँगे बे-मौत ग़म-ए-हिज्र के मारे
आएगी तो अब ज़िंदा अजल पाएगी किस को

अच्छा रहे तस्वीर किसी की मिरे दिल पर
कम-बख़्त न ठहरेगा तो ठहराएगी किस को

कुछ बैठ गया दिल ही यहाँ बैठ के अपना
ग़ैरत तिरी महफ़िल से अब उठवाएगी किस को

इस वादा-ख़िलाफ़ी ने अगर जान ही ले ली
फिर झूटी तसल्ली तिरी तड़पाएगी किस को

क्यूँ लेंगे 'जलाल' आ के मिरे दिल में वो चुटकी
झपकेगी पलक काहे को नींद आएगी किस को