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या-रब मिरी उस बुत से मुलाक़ात कहीं हो | शाही शायरी
ya-rab meri us but se mulaqat kahin ho

ग़ज़ल

या-रब मिरी उस बुत से मुलाक़ात कहीं हो

मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी

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या-रब मिरी उस बुत से मुलाक़ात कहीं हो
जिस बात को जी चाहे है वो बात कहीं हो

गर क़ुर्ब-ए-सुख़न उस से नहीं दूर से ऐ काश
नज़रों ही में टुक हर्फ़-ओ-हिकायत कहीं हो

फिरता है हसीनों से बहुत आँखें लड़ाता
डरता हूँ न दिल मसदर-ए-आफ़ात कहीं हो

होते हुए दुश्मन के कहूँ क्यूँ के में कुछ बात
मज्लिस से तिरी दफ़अ ये बद-ज़ात कहीं हो

काग़ज़ पे शब ओ रोज़ तिरी खींचूँ हूँ तस्वीर
यानी इसी सूरत बसर-औक़ात कहीं हो

है आज की शब वादा-ए-वस्ल उस का मिरे साथ
या-रब कि शिताबी से ये दिन रात कहीं हो

दे डालो दिल-ए-'मुसहफ़ी' तुम वर्ना मिरी जान
रुस्वाई है वो तुम पे गर इसबात कहीं हो