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या-रब आबाद होवें घर सब के | शाही शायरी
ya-rab aabaad howen ghar sab ke

ग़ज़ल

या-रब आबाद होवें घर सब के

मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी

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या-रब आबाद होवें घर सब के
फिरें ख़त ले के नामा-बर सब के

किस की मिज़्गान हैं कि सीनों में
यक-ब-यक छिन गए जिगर सब के

शब की शब गुल चमन के हैं मेहमान
बर्ग झड़ जाएँगे सहर सब के

एक आशिक़ पे इल्तिफ़ात न कर
हाल पर रख मियाँ नज़र सब के

दीजो पैग़ाम ही मिरा क़ासिद
ले चला है तू ख़त अगर सब के

जितने हैं गिर्द-ओ-पेश हम-साए
घर डुबोएगी चश्म-ए-तर सब के

हम रहे पीछे वाए गर्म रवाँ
पहुँचे मंज़िल पे पेशतर सब के

मेरे सोज़-ए-जुनूँ की दहशत से
बंद रहते हैं दिन को घर सब के

दिल ही अपना है चीनी-ए-मू-दार
हिस्से आए न वो कमर सब के

हाथ उठते थे पीटने के लिए
तेरे कुश्ते की लाश पर सब के

गर यही है रसाई-ए-सय्याद
एक दिन बाँधेगा ये पर सब के

क्या दिखावे सफ़ाई तब्अ मिरी
जिस जगह हूँ ख़ज़फ़ गुहर सब के

दोस्ती कर दिला न इन से कि हैं
दुश्मन-ए-जाँ ये सीम-बर सब के

थे जो सुल्तान-ए-बहर-ओ-बर आख़िर
गए बर्बाद ताज-ए-ज़र सब के

वाए दुनिया कि रुलते फिरते हैं
ख़ाक में कासा-हा-ए-सर सब के

'मुसहफ़ी' ये जो हैं अमीर ओ फ़क़ीर
दिल में है मौत का ख़तर सब के