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वो ज़र्द चेहरा मोअत्तर निगाह जैसा था | शाही शायरी
wo zard chehra moattar nigah jaisa tha

ग़ज़ल

वो ज़र्द चेहरा मोअत्तर निगाह जैसा था

माजिद-अल-बाक़री

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वो ज़र्द चेहरा मोअत्तर निगाह जैसा था
हवा का रूप था बोलो तो आह जैसा था

अलील वक़्त की पोशाक था बुख़ार उस का
वो एक जिस्म था लेकिन कराह जैसा था

भटक रहा था अँधेरे में दर्द का दरिया
वो एक रात का जुगनू था राह जैसा था

गली के मोड़ पे ठहरा हुआ था इक साया
लिबास चुप का बदन पर निबाह जैसा था

चला तो साए के मानिंद साथ साथ चला
रुका तो मेरे लिए महर-ओ-माह जैसा था

क़रीब देख के उस को ये बात किस से कहूँ
ख़याल दिल में जो आया गुनाह जैसा था

बहुत सी बातों में मजबूर था वो हम से भी
तकल्लुफ़ात में आलम-पनाह जैसा था

ख़बर के उड़ते ही यूँही कि मर गया 'माजिद'
पुराने घर का समाँ जश्न-गाह जैसा था