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वो वफ़ा-ओ-मेहर की दास्ताँ तुझे याद हो कि न याद हो | शाही शायरी
wo wafa-o-mehr ki dastan tujhe yaad ho ki na yaad ho

ग़ज़ल

वो वफ़ा-ओ-मेहर की दास्ताँ तुझे याद हो कि न याद हो

अर्श मलसियानी

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वो वफ़ा-ओ-मेहर की दास्ताँ तुझे याद हो कि न याद हो
कभी तू भी था मिरा मेहरबाँ तुझे याद हो कि न याद हो

तिरे लुत्फ़-ए-ख़ास ने जो दिया तिरी याद ने जो अता किया
ग़म-ए-मुस्तक़िल ग़म-ए-जावेदाँ तुझे याद हो कि न याद हो

वो जो शोर-ए-लुत्फ़-ए-सुख़न रहा वो जो ज़ोर-ए-लुत्फ़-ए-बयाँ रहा
मिरे हम-सुख़न मिरे हम-ज़बाँ तुझे याद हो कि न याद हो

जो तिरे लिए मिरे दिल में था जो मिरे लिए तिरे दिल में था
मुझे याद है वो ग़म-ए-निहाँ तुझे याद हो कि न याद हो

तिरी दोस्ती पे मिरा यक़ीं मुझे याद है मिरे हम-नशीं
मिरी दोस्ती पे तिरा गुमाँ तुझे याद हो कि न याद हो

वो करम-शिआरी-ए-दुश्मनाँ वो सितम-तराज़ी-ए-दोस्ताँ
मिरे नुक्ता-रस मिरे नुक्ता-दाँ तुझे याद हो कि न याद हो

वो जो शाख़-ए-गुल पे था आशियाँ जो था वज्ह-ए-नाज़िश-ए-गुलिस्ताँ
गिरी जिस पे बर्क़-ए-शरर-फ़शाँ तुझे याद हो कि न याद हो

मिरे दिल के जज़्बा-ए-गर्म में मिरे दिल के गोशा-ए-नर्म में
था तिरा मक़ाम कहाँ कहाँ तुझे याद हो कि न याद हो

उसे मानता हूँ मैं मेहरबाँ हैं तिरे रफ़ीक़ बहुत यहाँ
कभी मैं भी था तिरा राज़-दाँ तुझे याद हो कि न याद हो

ये जो 'अर्श' शिकवा-तराज़ है जिसे हर्ज़ा-गोई पे नाज़ है
ये वही है शाइ'र-ए-ख़ुश-बयाँ तुझे याद हो कि न याद हो