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वो वाक़िआ'त किसे याद इक ज़माना हुआ | शाही शायरी
wo waqiat kise yaad ek zamana hua

ग़ज़ल

वो वाक़िआ'त किसे याद इक ज़माना हुआ

सफ़ी औरंगाबादी

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वो वाक़िआ'त किसे याद इक ज़माना हुआ
किसी ने क्या न किया और हम पे क्या न हुआ

मिरा बुरा तो मिरे हस्ब-ए-मुद्दआ न हुआ
भला हुआ भी तो कोई मिरा बुरा न हुआ

दिखाते हम दिल-ए-पुर-दाग़ की बहार उसे
ये मंज़र और ज़रा सा भी ख़ुशनुमा न हुआ

किसी का दर्द-ए-मोहब्बत अगर था कम-माया
तो ठहर ठहर के फिर क्यूँ ज़रा ज़रा न हुआ

तिरा इरादा मुबारक तुझे मगर ऐ दिल
ये नक़्श-ए-पा अगर उस का ही नक़्श-ए-पा न हुआ

सितम करे भी तो समझूँ कि ये सितम ही नहीं
ख़फ़ा हुआ भी तो जानों कि तू ख़फ़ा न हुआ

क्या जब आने का इक़रार आप भूल गए
ये एक वा'दा तो शायद कभी वफ़ा न हुआ

ज़माना आप को आशिक़-नवाज़ कहता है
ये सच भी हो तो कभी हम को कुछ अता न हुआ

वो क्या कहेंगे जो इक़बाल ही न हो मुझ को
वो क्या करेंगे जो मैं क़बिल-ए-ख़ता न हुआ

अगरचे शैख़ में लाखों करामातें आईं
मगर ये बंदे का बंदा रहा ख़ुदा न हुआ

रज़ा-ए-दोस्त के होते हैं और क्या मा'नी
कि मुझ से उन का कभी आज तक गिला न हुआ

वो ख़ुद मिले तो बता क्या जवाब दूँ ऐ दिल
ये उज़्र लंग है कोई भी रहनुमा न हुआ

'सफ़ी' नसीब बुरे हों तो क्या करे कोई
नहीं तो क़ैस भी कुछ आदमी बुरा न हुआ