वो वाक़िआ'त किसे याद इक ज़माना हुआ
किसी ने क्या न किया और हम पे क्या न हुआ
मिरा बुरा तो मिरे हस्ब-ए-मुद्दआ न हुआ
भला हुआ भी तो कोई मिरा बुरा न हुआ
दिखाते हम दिल-ए-पुर-दाग़ की बहार उसे
ये मंज़र और ज़रा सा भी ख़ुशनुमा न हुआ
किसी का दर्द-ए-मोहब्बत अगर था कम-माया
तो ठहर ठहर के फिर क्यूँ ज़रा ज़रा न हुआ
तिरा इरादा मुबारक तुझे मगर ऐ दिल
ये नक़्श-ए-पा अगर उस का ही नक़्श-ए-पा न हुआ
सितम करे भी तो समझूँ कि ये सितम ही नहीं
ख़फ़ा हुआ भी तो जानों कि तू ख़फ़ा न हुआ
क्या जब आने का इक़रार आप भूल गए
ये एक वा'दा तो शायद कभी वफ़ा न हुआ
ज़माना आप को आशिक़-नवाज़ कहता है
ये सच भी हो तो कभी हम को कुछ अता न हुआ
वो क्या कहेंगे जो इक़बाल ही न हो मुझ को
वो क्या करेंगे जो मैं क़बिल-ए-ख़ता न हुआ
अगरचे शैख़ में लाखों करामातें आईं
मगर ये बंदे का बंदा रहा ख़ुदा न हुआ
रज़ा-ए-दोस्त के होते हैं और क्या मा'नी
कि मुझ से उन का कभी आज तक गिला न हुआ
वो ख़ुद मिले तो बता क्या जवाब दूँ ऐ दिल
ये उज़्र लंग है कोई भी रहनुमा न हुआ
'सफ़ी' नसीब बुरे हों तो क्या करे कोई
नहीं तो क़ैस भी कुछ आदमी बुरा न हुआ

ग़ज़ल
वो वाक़िआ'त किसे याद इक ज़माना हुआ
सफ़ी औरंगाबादी