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वो तुमतराक़-ए-सिकंदर न क़स्र-ए-शाह में है | शाही शायरी
wo tumtaraq-e-sikandar na qasr-e-shah mein hai

ग़ज़ल

वो तुमतराक़-ए-सिकंदर न क़स्र-ए-शाह में है

राहत सरहदी

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वो तुमतराक़-ए-सिकंदर न क़स्र-ए-शाह में है
जो बात 'राहत'-ए-ख़स्ता की ख़ानक़ाह में है

उसे हटाना पड़ेगा जुनूँ की ठोकर से
ये काएनात रुकावट मिरी निगाह में है

मैं इस समाज को तस्लीम ही नहीं करता
कि इश्क़ जैसी इबादत जहाँ गुनाह में है

ख़याल रुकते नहीं आहनी फ़सीलों से
कि आह-ए-ख़ल्क़ कहाँ क़ुदरत-ए-सिपाह में है

कि ये भी मेरी तरह भूलती नहीं तुझ को
इसी लिए तो नमी चश्म-ए-सैर-गाह में है

कहाँ बनाएगा तो डेढ़ ईंट की मस्जिद
तमाम शहर तो शामिल हुदूद-ए-शाह में है

क़दम क़दम पे वहाँ हाथ ख़ार बनते हैं
कशिश अजीब सी 'राहत' किसी की राह में है