वो टुकड़ा रात का बिखरा हुआ सा
अभी तक दिन पे है ठहरा हुआ सा
उदासी एक लम्हे पर गिरी थी
सदी का बोझ है पसरा हुआ सा
इधर खिड़की में था मायूस चेहरा
उधर भी चाँद है उतरा हुआ सा
करे है शोर यूँ सीने में ये दिल
समूचा जिस्म है बहरा हुआ सा
ये किन नज़रों से मुझ को देखते हो
रहूँ हर दम सजा-संवरा हुआ सा
सुखाने ज़ुल्फ़ वो आए हैं छत पर
है सूरज आज फिर सहरा हुआ सा
लिखा उस नाम का पहला ही अक्षर
मुकम्मल पेज है चेहरा हुआ सा

ग़ज़ल
वो टुकड़ा रात का बिखरा हुआ सा
गौतम राजऋषि