वो तो हर चाहने वाले पे फ़िदा लगता है
जाने किस किस का है जो मुझ को मिरा लगता है
उस ने क़दमों में सजा रक्खे हैं उम्मीद के फूल
देखने वालों को जो आबला-पा लगता है
अब न सुन पाएगा वो मेरी सदाएँ शायद
वो कहीं दूर बहुत दूर गया लगता है
पर जो फैलाता नहीं ख़ौफ़ से अपने पंछी
ताज़ा ताज़ा किसी पिंजरे से उड़ा लगता है
ये जो हम जैसा ही इंसान है इंसान अभी
इस को मसनद पे बिठा दें तो जुदा लगता है
मैं भुला देता हूँ हर बार जफ़ाएँ उस की
जब भी सीने से मिरे टूट के आ लगता है
आओ इस प्यार को हम आख़िरी पुर्सा दे दें
इस तरह छोड़ के जाना तो बुरा लगता है

ग़ज़ल
वो तो हर चाहने वाले पे फ़िदा लगता है
सुहैल सानी