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वो तग़ाफ़ुल को इलाज-ए-ग़म-ए-पिन्हाँ समझा | शाही शायरी
wo taghaful ko ilaj-e-gham-e-pinhan samjha

ग़ज़ल

वो तग़ाफ़ुल को इलाज-ए-ग़म-ए-पिन्हाँ समझा

मुंशी नौबत राय नज़र लखनवी

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वो तग़ाफ़ुल को इलाज-ए-ग़म-ए-पिन्हाँ समझा
चारा-गर भी न मिरे दर्द का दरमाँ समझा

ताब-ए-दीदार न लाई निगह-ए-नाज़-परस्त
और वो दीदा-ए-उश्शाक़ पे एहसाँ समझा

जम्अ ख़ातिर न हुई दीद-ए-बुताँ से अपनी
दफ़्तर-ए-हुस्न को अज्ज़ा-ए-परेशाँ समझा

न हुई जल्वा-गह-ए-नाज़ की वुसअत मालूम
गो मैं हर ज़र्रा को इक दीदा-ए-हैराँ समझा

थी तिरी याद भी क्या अंजुमन-आरा-ए-ख़याल
दिल में जो शोला उठा शम-ए-शबिस्ताँ समझा

शोरिश-ए-इश्क़ का आसान न था अंदाज़ा
चाक हो कर मिरी वहशत को गरेबाँ समझा

साहिब-ए-दिल है वही मुर्शिद-ए-कामिल है वही
मेरे चेहरे से जो मेरा ग़म-ए-पिन्हाँ समझा

हर नफ़स शाहिद-ए-दुश्वारी-ए-उल्फ़त है 'नज़र'
सख़्त मुश्किल था वही काम जो आसाँ समझा