वो शाम ढले तेरा मिलना वो तेरा हँसाना याद नहीं
जो तेरी रिफ़ाक़त में गुज़रा हम को वो ज़माना याद नहीं
मंज़िल है कहाँ कुछ याद नहीं किस सम्त है जाना याद नहीं
अब तेरा पता हम क्या पूछें ख़ुद अपना ठिकाना याद नहीं
क्या तुझ से बहाना कोई करें अब कोई बहाना याद नहीं
हम आ तो गए महफ़िल में तिरी पर देर से आना याद नहीं
ऐ अहल-ए-ज़माना ज़िद न करो वो दौर पुराना याद नहीं
अब उन की कहानी क्या कहिए ख़ुद अपना फ़साना याद नहीं
वो चाँदनी-शब फूलों की महक वो ठंडी हवाओं के झोंके
तू इतनी जल्दी भूल गया मौसम वो सुहाना याद नहीं
वो रात वो बारिश तूफ़ानी उस रात का मंज़र याद तो कर
वो इक दूजे को मीठी डिश क्या तुम को खिलाना याद नहीं
इल्ज़ाम-तराशी तो 'साग़र' दुनिया का पुराना शेवा है
यूसुफ़ पे ज़माने का तुझ को क्या उँगली उठाना याद नहीं
ग़ज़ल
वो शाम ढले तेरा मिलना वो तेरा हँसाना याद नहीं
इमरान साग़र