वो सर-ए-बाम कब नहीं आता
जब मैं होता हूँ तब नहीं आता
बहर-ए-तस्कीं वो कब नहीं आता
ए'तिबार आह अब नहीं आता
चुप है शिकवों की एक बंद किताब
उस से कहने का ढब नहीं आता
उन के आगे भी दिल को चैन नहीं
बे-अदब को अदब नहीं आता
ज़ख़्म से कम नहीं है उस की हँसी
जिस को रोना भी अब नहीं आता
मुँह को आ जाता है जिगर ग़म से
और गिला ता-ब-लब नहीं आता
भोली बातों पे तेरी दिल को यक़ीं
पहले आता था अब नहीं आता
दुख वो देता है उस पे है ये हाल
लेने जाता हूँ जब नहीं आता
'आरज़ू' बे-असर मोहब्बत छोड़
क्यूँ करे काम जब नहीं आता
ग़ज़ल
वो सर-ए-बाम कब नहीं आता
आरज़ू लखनवी