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वो सामने हों मिरे और नज़र झुकी न रहे | शाही शायरी
wo samne hon mere aur nazar jhuki na rahe

ग़ज़ल

वो सामने हों मिरे और नज़र झुकी न रहे

शहनाज़ मुज़म्मिल

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वो सामने हों मिरे और नज़र झुकी न रहे
मता-ए-ज़ीस्त लुटा कर कोई कमी न रहे

दिए जलाए हैं मैं ने खुले दरीचों पर
ऐ तुंद-ओ-तेज़ हवा तुझ को बरहमी न रहे

बताओ ऐसा भी मंज़र नज़र से गुज़रा है
चराग़ जलते रहें और रौशनी न रहे

कोई भी लम्हा गुज़रता नहीं है तेरे बग़ैर
तअ'ल्लुक़ात में ऐसी भी चाशनी न रहे

हमारे हौसले को देख कर ये कहते हो
ज़बान बंद रहे आँख में नमी न रहे

मिले जो रौशनी तुझ से तो ज़ुल्मतें कम हों
कि तेरे बा'द मिरी जान ज़िंदगी न रहे

लबों पे आ गया दम अपना हब्स मौसम में
हवा-ए-अब्र-ए-बहाराँ यूँही थमी न रहे