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वो रौशनी कि ब-क़ैद-ए-सहर नहीं ऐ दोस्त | शाही शायरी
wo raushni ki ba-qaid-e-sahar nahin ai dost

ग़ज़ल

वो रौशनी कि ब-क़ैद-ए-सहर नहीं ऐ दोस्त

ग़ुलाम रब्बानी ताबाँ

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वो रौशनी कि ब-क़ैद-ए-सहर नहीं ऐ दोस्त
तिरा जमाल है मेरी नज़र नहीं ऐ दोस्त

तिरे बग़ैर वो शाम-ओ-सहर नहीं ऐ दोस्त
कोई चराग़ सर-ए-रहगुज़र नहीं ऐ दोस्त

बहाना ढूँढ लिया तुझ से बात करने का
कुछ और मक़्सद-ए-अर्ज़-ए-हुनर नहीं ऐ दोस्त

शब-ए-फ़िराक़ ये महवियतों का आलम है
किसी की हाए किसी को ख़बर नहीं ऐ दोस्त

मह ओ नुजूम भी गर्म-ए-सफ़र तो हैं लेकिन
कोई भी उन में मिरा हम-सफ़र नहीं ऐ दोस्त

कभी उधर से जो गुज़रे तो सरसरी गुज़रे
सवाद-ए-तूर तिरी रहगुज़र नहीं ऐ दोस्त