वो क़ाफ़िला जो रह-ए-शाएरी में कम उतरा
नसीब से मिरे घर कारवान-ए-ग़म उतरा
तुझे ख़बर ही नहीं है ये क़िस्सा-ए-कोताह
जहाँ पे बुत न गिरे कब वहाँ हरम उतरा
सफ़ेद हो गए जब शहर के तमाम सुतूँ
हर एक बुर्ज हर इक ताक़ में सनम उतरा
कशाँ कशाँ जो सितारों की सम्त निकला था
फिरा तो अपनी ज़मीं पर ब-चश्म-ए-नम उतरा
दयार-ए-इश्क़ की तीरा-नसीबियाँ 'सालिम'
कि आसमाँ तो गिरे ख़ूब अब्र कम उतरा

ग़ज़ल
वो क़ाफ़िला जो रह-ए-शाएरी में कम उतरा
फ़रहान सालिम