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वो फूल था जादू-नगरी में जिस फूल की ख़ुश्बू भाई थी | शाही शायरी
wo phul tha jadu-nagri mein jis phul ki KHushbu bhai thi

ग़ज़ल

वो फूल था जादू-नगरी में जिस फूल की ख़ुश्बू भाई थी

साबिर वसीम

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वो फूल था जादू-नगरी में जिस फूल की ख़ुश्बू भाई थी
उसे लाना जान गँवाना था और अपनी जान पराई थी

वो रात का तूल-तवील सफ़र क्या कहिए कैसे आई सहर
कुछ मैं ने क़िस्सा छेड़ा था कुछ उस ने आस बँधाई थी

ख़्वाबों से उधर की मसाफ़त में जो गुज़री है क्या पूछते हो
इक वहशत चार-पहर की थी इक जलती हुई तन्हाई थी

वो रात कि जिस के किनारों पर हम मिलते और बिछड़ते थे
इक बार मुझे तन्हा पा कर उस की भी आँख भर आई थी

हर शाम उफ़ुक़ की दूरी पर कोई सहमा सहमा फिरता था
तस्वीर जो उस की बनाई तो ख़ुद अपनी शक्ल बनाई थी