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वो निकहत-ए-गेसू फिर ऐ हम-नफ़साँ आई | शाही शायरी
wo nikhat-e-gesu phir ai ham-nafasan aai

ग़ज़ल

वो निकहत-ए-गेसू फिर ऐ हम-नफ़साँ आई

रविश सिद्दीक़ी

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वो निकहत-ए-गेसू फिर ऐ हम-नफ़साँ आई
अब दम में दम आया है अब जान में जाँ आई

हर तंज़ पे रिंदों ने सर अपना झुकाया है
उस पर भी न वाइज़ को तहज़ीब-ए-मुग़ाँ आई

जब भी ये ख़याल आया क्या दैर है क्या काबा
नाक़ूस-ए-बरहमन से आवाज़-ए-अज़ाँ आई

उस शोख़ की बातों को दुश्वार है दोहराना
जब बाद-ए-सबा आई आशुफ़्ता-बयाँ आई

उर्दू जिसे कहते हैं तहज़ीब का चश्मा है
वो शख़्स मोहज़्ज़ब है जिस को ये ज़बाँ आई

ये ख़ंदा-ए-गुल क्या है हम ने तो ये देखा है
कलियों के तबस्सुम में छुप छुप के फ़ुग़ाँ आई

आबाद ख़याल उस का शादाँ रहे याद उस की
इक दुश्मन-ए-दिल आया इक आफ़त-ए-जाँ आई

अशआर-ए-'रविश' सुन कर तौसीफ़ ओ सताइश को
'सादी' का बयाँ आया 'हाफ़िज़' की ज़बाँ आई