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वो निगाहें क्या कहूँ क्यूँ कर रग-ए-जाँ हो गईं | शाही शायरी
wo nigahen kya kahun kyun kar rag-e-jaan ho gain

ग़ज़ल

वो निगाहें क्या कहूँ क्यूँ कर रग-ए-जाँ हो गईं

अज़ीज़ लखनवी

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वो निगाहें क्या कहूँ क्यूँ कर रग-ए-जाँ हो गईं
दिल में नश्तर बन के डूबीं और पिन्हाँ हो गईं

थीं जो कल तक जल्वा-अफ़रोज़ी से शम-ए-अंजुमन
आज वो शक्लें चराग़-ए-ज़ेर-ए-दामाँ हो गईं

इक नज़र घबरा के की अपनी तरफ़ उस शोख़ ने
हस्तियाँ जब मिट के अज्ज़ा-ए-परेशाँ हो गईं

दम रुका था जिस की उलझन से मिरे सीने में आह
फिर वही ज़ुल्फ़ें मिरे ग़म में परेशाँ हो गईं

फूँक दी इक रूह देखा ज़ोर-ए-एजाज़-ए-जुनूँ
जितनी साँसें मैं ने लीं तार-ए-गरेबाँ हो गईं

इश्क़ के क़िस्से को हम सादा समझते थे मगर
जब वरक़ उल्टे तो आँखें सख़्त हैराँ हो गईं

चंद तस्वीरें मिरी जो मुख़्तलिफ़ वक़्तों की थीं
बा'द मेरे ज़ीनत-ए-दीवार-ए-ज़िंदाँ हो गईं

उड़ के दिल की ख़ाक के ज़र्रे गए जिस जिस तरफ़
रफ़्ता रफ़्ता वो ज़मीनें सब बयाबाँ हो गईं

आइने में अक्स है और अक्स में जज़्ब-ए-ख़लिश
दिल में जो फ़ाँसें चुभीं तस्वीर-ए-मिज़्गाँ हो गईं

उस की शाम-ए-ग़म पे सदक़े हो मिरी सुब्ह-ए-हयात
जिस के मातम में तिरी ज़ुल्फ़ें परेशाँ हो गईं

शाम-ए-वा'दा आइए तो आप उस की फ़िक्र क्या
फिर बना दूँगा अगर ज़ुल्फ़ें परेशाँ हो गईं

किस दिल-आवारा की मय्यत घर से निकली है 'अज़ीज़'
शहर की आबाद राहें आज वीराँ हो गईं