वो नहीं हूँ मैं कि जिस पर कोई अश्क-बार होता
कभी शम्अ' भी न रोती जो मिरा मज़ार होता
शब-ए-ग़म में ज़िंदगी का किसे ए'तिबार होता
मिरी जान जा चुकी थी जो न इंतिज़ार होता
मिरी दास्तान-ए-ग़म को वो ग़लत समझ रहे हैं
कुछ उन्हीं की बात बनती अगर ए'तिबार होता
यही सोज़-ए-इश्क़ जिस को मैं हमेशा राज़ समझा
जो हिजाब-ए-दिल न जलता तो न आश्कार होता
मैं शिकायत ज़माना जो करूँ तो क्या समझ कर
न ये दौर-ए-चर्ख़ होता न ये रोज़गार होता
दिल-ए-पारा-पारा तुझ को कोई यूँ तो दफ़्न करता
वो जिधर निगाह करते उधर इक मज़ार होता
मय-ए-इश्क़ जोश-ज़न है ये लहू नहीं रगों में
मिरा नश्शा क्यूँ उतरता मुझे क्यूँ ख़ुमार होता
मिरे दिल ने बढ़ के रोका तिरे तीर-ए-जाँ-फ़िशाँ को
जो ये बीच में न पड़ता तो जिगर के पार होता
वो लहद पे उन का आना वो क़दम क़दम पे महशर
मिरी नींद क्यूँ उचटती अगर एक बार होता
शब-ए-हिज्र बा'द मेरे अगर इस जहाँ में रहती
तो यही सियाह दफ़्तर मिरा यादगार होता
जो हमारे देखने को कभी आप आ निकलते
वही आँख दर पे होती वही इंतिज़ार होता
वो शबाब के फ़साने जो मैं सुन रहा हूँ दिल से
अगर और कोई कहता तो न ए'तिबार होता
ये ज़माना बढ़ रहा है फ़क़त इज़्तिराब-ए-दिल से
शब-ए-ग़म न यूँ ठहरती जो मुझे क़रार होता
वो जहाँ में आग लगती कि बुझाए से न बुझती
मिरे दूद-ए-दिल में 'साक़िब' जो कोई शरार होता
ग़ज़ल
वो नहीं हूँ मैं कि जिस पर कोई अश्क-बार होता
साक़िब लखनवी