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वो नग़्मा बुलबुल-ए-रंगीं-नवा इक बार हो जाए | शाही शायरी
wo naghma bulbul-e-rangin-nawa ek bar ho jae

ग़ज़ल

वो नग़्मा बुलबुल-ए-रंगीं-नवा इक बार हो जाए

असग़र गोंडवी

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वो नग़्मा बुलबुल-ए-रंगीं-नवा इक बार हो जाए
कली की आँख खुल जाए चमन बेदार हो जाए

नज़र वो है जो इस कौन ओ मकाँ से पार हो जाए
मगर जब रू-ए-ताबाँ पर पड़े बेकार हो जाए

तबस्सुम की अदा से ज़िंदगी बेदार हो जाए
नज़र से छेड़ दे रग रग मिरी हुश्यार हो जाए

तजल्ली चेहरा-ए-ज़ेबा की हो कुछ जाम-ए-रंगीं की
ज़मीं से आसमाँ तक आलम-ए-अनवार हो जाए

तुम उस काफ़िर का ज़ौक़-ए-बंदगी अब पूछते क्या हो
जिसे ताक़-ए-हरम भी अबरू-ए-ख़मदार हो जाए

सहर लाएगी क्या पैग़ाम-ए-बेदारी शबिस्ताँ में
नक़ाब-ए-रुख़ उलट दो ख़ुद सहर बेदार हो जाए

ये इक़रार-ए-ख़ुदी है दावा-ए-ईमान-ओ-दीं कैसा
तिरा इक़रार जब है ख़ुद से भी इंकार हो जाए

नज़र इस हुस्न पर ठहरे तो आख़िर किस तरह ठहरे
कभी ख़ुद फूल बन जाए कभी रुख़्सार हो जाए

कुछ ऐसा देख कर चुप हूँ बहार-ए-आलम-ए-इम्काँ
कोई इक जाम पी कर जिस तरह सरशार हो जाए

चला जाता हूँ हँसता खेलता मौज-ए-हवादिस से
अगर आसानियाँ हों ज़िंदगी दुश्वार हो जाए