EN اردو
वो मिस्ल-ए-मौज-ए-बहार अपने शबाब की सम्त आ रहे हैं | शाही शायरी
wo misl-e-mauj-e-bahaar apne shabab ki samt aa rahe hain

ग़ज़ल

वो मिस्ल-ए-मौज-ए-बहार अपने शबाब की सम्त आ रहे हैं

कशफ़ी लखनवी

;

वो मिस्ल-ए-मौज-ए-बहार अपने शबाब की सम्त आ रहे हैं
दिलों के ग़ुंचे खिला रहे हैं नज़र का दामन सजा रहे हैं

हर एक ज़र्रे में हर फ़ज़ा में वो हुस्न बन कर समा रहे हैं
हमारी ताब-ए-निगाह को वो हर आईना आज़मा रहे हैं

हमारे आँसू सुना रहे हैं शिकस्ता दिल का फ़साना उन को
मगर क़यामत की बात है ये वो सुन के भी मुस्कुरा रहे हैं

दिल-ओ-जिगर ख़ून हो चुके हैं हमारे लब पर मगर हँसी है
हम अपने अफ़साना-ए-वफ़ा को कुछ और रंगीं बना रहे हैं

जो महव-ए-ज़ुल्म-ओ-सितम था कल तक वो आज शायद बदल गया हो
ये आरज़ू ले के हम दोबारा किसी के कूचे में जा रहे हैं

फ़लक का अंदाज़ कह रहा है हमारे अरमाँ का ख़ून होगा
अभी तो आग़ाज़-ए-शब है आख़िर सितारे क्यूँ झिलमिला रहे हैं

हमारी क़िस्मत का फेर देखो तलाश-ए-मंज़िल में उम्र गुज़री
मगर जहाँ से चले थे कशफ़ी वहीं पे हम ख़ुद को पा रहे हैं