वो मिरी चीन-ए-जबीं से ग़म-ए-पिन्हाँ समझा
राज़-ए-मक्तूब ब-बे-रब्ती-ए-उनवाँ समझा
यक अलिफ़ बेश नहीं सैक़ल-ए-आईना हनूज़
चाक करता हूँ मैं जब से कि गरेबाँ समझा
शरह-ए-असबाब-ए-गिरफ़्तारी-ए-ख़ातिर मत पूछ
इस क़दर तंग हुआ दिल कि मैं ज़िंदाँ समझा
बद-गुमानी ने न चाहा उसे सरगर्म-ए-ख़िराम
रुख़ पे हर क़तरा अरक़ दीदा-ए-हैराँ समझा
इज्ज़ से अपने ये जाना कि वो बद-ख़ू होगा
नब्ज़-ए-ख़स से तपिश-ए-शोला-ए-सोज़ाँ समझा
सफ़र-ए-इश्क़ में की ज़ोफ़ ने राहत-तलबी
हर क़दम साए को मैं अपने शबिस्ताँ समझा
था गुरेज़ाँ मिज़ा-ए-यार से दिल ता दम-ए-मर्ग
दफ़-ए-पैकान-ए-क़ज़ा इस क़दर आसाँ समझा
दिल दिया जान के क्यूँ उस को वफ़ादार 'असद'
ग़लती की कि जो काफ़िर को मुसलमाँ समझा
हम ने वहशत-कदा-ए-बज़्म-ए-जहाँ में जूँ शम्अ'
शोला-ए-इश्क़ को अपना सर-ओ-सामाँ समझा
ग़ज़ल
वो मिरी चीन-ए-जबीं से ग़म-ए-पिन्हाँ समझा
मिर्ज़ा ग़ालिब