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वो मिरे ग़म का मुदावा नहीं होने देता | शाही शायरी
wo mere gham ka mudawa nahin hone deta

ग़ज़ल

वो मिरे ग़म का मुदावा नहीं होने देता

नासिर ज़ैदी

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वो मिरे ग़म का मुदावा नहीं होने देता
ज़र्रा-ए-दर्द को सहरा नहीं होने देता

साथ रखता हूँ हमेशा तिरी यादों की धनक
मैं कभी ख़ुद को अकेला नहीं होने देता

ज़ख़्म भरता है नया ज़ख़्म लगाने के लिए
क्या मसीहा है कि अच्छा नहीं होने देता

जिस के अंजाम से टूटे मिरा पिंदार-ए-अना
मैं वो आग़ाज़ दोबारा नहीं होने देता

रोक देता हूँ उमडते हुए तूफ़ाँ 'नासिर'
क़तरा-ए-अश्क को दरिया नहीं होने देता