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वो मेरे क़ल्ब-ओ-रूह को शादाब कर गया | शाही शायरी
wo mere qalb-o-ruh ko shadab kar gaya

ग़ज़ल

वो मेरे क़ल्ब-ओ-रूह को शादाब कर गया

बानो बी

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वो मेरे क़ल्ब-ओ-रूह को शादाब कर गया
फिर इस तरह गया मुझे बेताब कर गया

काजल भी नींद का मिरी आँखों से ले उड़ा
ख़्वाबों में आ के वो मुझे बे-ख़्वाब कर गया

उस ने तो इज़्तिराब के मा'नी सुझा दिए
ऐसी निगाह की मुझे बेताब कर गया

जिंस-ए-गिराँ समझ के नहीं देखता कोई
मुझ को वो एक जौहर-ए-नायाब कर गया

जौफ़-ए-सदफ़ समझ के पड़ी अब्र की नज़र
थी सत्ह-ए-आब पर वो तह-ए-आब कर गया

बाक़ी रहे न बाम-ओ-दरीचे न ही फ़सील
क्या हाल मेरे दिल का ये सैलाब कर गया

साहिर था देवता था कोई बुत-तराश था
पत्थर थी एक 'बानो' वो सीमाब कर गया