वो मौसम बे-ख़ुदी के थे जो मौसम हम गुज़ार आए
कि जब चाहा तुम्हारे नाम से ख़ुद को पुकार आए
सफ़र की सब अज़िय्यत मुंतज़िर आँखें अगर ले लें
परों में ताक़त-ए-परवाज़ फिर बे-इख़्तियार आए
मैं तिश्ना-लब ज़मीनों पर कहाँ तक चश्म-ए-तर रखती
सफ़र में ज़िंदगी के हर क़दम पर रेग-ज़ार आए
ग़मों के दोष पर जब क़र्या-ए-जाँ का सफ़र ठहरा
चराग़ अश्कों के रखे ख़्वाब पलकों से उतार आए
मिरे ख़्वाबों के सारे रंग जिस की मुट्ठियों में हैं
न जाने अब वो क्या चाहे यहाँ क्यूँ बार बार आए
बदलते मौसमों को ख़ूँ से रंगीं पैरहन दे कर
चलो हम दस्त-ए-क़ातिल का हर इक एहसाँ उतार आए
वफ़ा के तिश्नगी के और कुछ मासूम वा'दों के
ये सारे क़र्ज़ देखो हम लब-ए-दरिया उतार आए
ग़ज़ल
वो मौसम बे-ख़ुदी के थे जो मौसम हम गुज़ार आए
मलिका नसीम