वो मसीहा क़ब्र पर आता रहा
मैं मुए पर रोज़ जी जाता रहा
ज़िंदगी की हम ने मर-मर के बसर
वो बुत-ए-तरसा जो तरसाता रहा
वाह बख़्त-ए-ना-रसा देखा तुझे
नामा-बर से ख़त कहीं जाता रहा
राह तकते तकते आख़िर जाँ गई
वो तग़ाफ़ुल-केश बस आता रहा
दिल तो देने को दिया पर हम-नशीं
हाथ मैं मल मल के पछताता रहा
देख उस को हो गया मैं बे-ख़बर
दिल यकायक हाथ से जाता रहा
क्या कहूँ किस तरह फ़ुर्क़त में जिया
ख़ून-ए-दिल पीता तो ग़म खाता रहा
रात भर उस बर्क़-वश की याद में
सैल-ए-अश्क आँखों से बरसाता रहा
ढूँढता फिरता हूँ उस को जा-ब-जा
दिल ख़ुदा जाने किधर जाता रहा
उस मसीहा की उमीद-ए-वस्ल में
शाम जीता सुब्ह मर जाता रहा
इश्क़ का 'रा'ना' मरज़ है ला-दवा
कब सुना तू ने कि वो जाता रहा
ग़ज़ल
वो मसीहा क़ब्र पर आता रहा
मर्दान अली खां राना