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वो मसीहा क़ब्र पर आता रहा | शाही शायरी
wo masiha qabr par aata raha

ग़ज़ल

वो मसीहा क़ब्र पर आता रहा

मर्दान अली खां राना

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वो मसीहा क़ब्र पर आता रहा
मैं मुए पर रोज़ जी जाता रहा

ज़िंदगी की हम ने मर-मर के बसर
वो बुत-ए-तरसा जो तरसाता रहा

वाह बख़्त-ए-ना-रसा देखा तुझे
नामा-बर से ख़त कहीं जाता रहा

राह तकते तकते आख़िर जाँ गई
वो तग़ाफ़ुल-केश बस आता रहा

दिल तो देने को दिया पर हम-नशीं
हाथ मैं मल मल के पछताता रहा

देख उस को हो गया मैं बे-ख़बर
दिल यकायक हाथ से जाता रहा

क्या कहूँ किस तरह फ़ुर्क़त में जिया
ख़ून-ए-दिल पीता तो ग़म खाता रहा

रात भर उस बर्क़-वश की याद में
सैल-ए-अश्क आँखों से बरसाता रहा

ढूँढता फिरता हूँ उस को जा-ब-जा
दिल ख़ुदा जाने किधर जाता रहा

उस मसीहा की उमीद-ए-वस्ल में
शाम जीता सुब्ह मर जाता रहा

इश्क़ का 'रा'ना' मरज़ है ला-दवा
कब सुना तू ने कि वो जाता रहा