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वो मसाफ़-ए-जीस्त में हर मोड़ पर तन्हा रहा | शाही शायरी
wo masaf-e-zist mein har moD par tanha raha

ग़ज़ल

वो मसाफ़-ए-जीस्त में हर मोड़ पर तन्हा रहा

अलक़मा शिबली

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वो मसाफ़-ए-जीस्त में हर मोड़ पर तन्हा रहा
फिर भी होंटों पर न उस के कोई भी शिकवा रहा

जो सदा तिश्ना-लबों के वास्ते दरिया रहा
उम्र भर वो ख़ुद ब-नाम-ए-दोस्ताँ प्यासा रहा

अक़्ल हैराँ है जुनूँ भी दम-ब-ख़ुद है सोच कर
वो हुजूम-ए-कुश्तगाँ में किस तरह ज़िंदा रहा

फूलने फलने का मौक़ा तो कहाँ उन को मिला
नीम-जाँ पौदों पे जब तक आप का साया रहा

'अलक़मा-शिबली' हवा कैसी चली गुलज़ार में
आशियाँ में भी परिंदा वक़्त का सहमा रहा