वो मसाफ़-ए-जीस्त में हर मोड़ पर तन्हा रहा
फिर भी होंटों पर न उस के कोई भी शिकवा रहा
जो सदा तिश्ना-लबों के वास्ते दरिया रहा
उम्र भर वो ख़ुद ब-नाम-ए-दोस्ताँ प्यासा रहा
अक़्ल हैराँ है जुनूँ भी दम-ब-ख़ुद है सोच कर
वो हुजूम-ए-कुश्तगाँ में किस तरह ज़िंदा रहा
फूलने फलने का मौक़ा तो कहाँ उन को मिला
नीम-जाँ पौदों पे जब तक आप का साया रहा
'अलक़मा-शिबली' हवा कैसी चली गुलज़ार में
आशियाँ में भी परिंदा वक़्त का सहमा रहा
ग़ज़ल
वो मसाफ़-ए-जीस्त में हर मोड़ पर तन्हा रहा
अलक़मा शिबली